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पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र और उनके संसाधन
चन्द्रमा के ग्रहपथ में अपोलो ८ से दिखता धरती का उदय @ नासा
कल्पना कीजिये की पृथ्वी आपके हाथों के बीच में एक फुटबॉल की तरह है। जमीन या पानी के ऊपर और नीचे जीवन का समर्थन करने वाली परत एक नख की मोटाई से कम है।यह नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्रों की परत पौधों, जानवरों और अन्य जीवों से बनी क सुन्दर प्रणाली है जिसे हवा और पानी से समर्थन मिलता है। हम इन पारिस्थितिक तंत्रों का एक हिस्सा हैं, जिसमें जंगल, पहाड़, घास के मैदान, रेगिस्तान, झील, नदियाँ और समुद्र शामिल हैं। खुद के जीवित रहने के लिए हम पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्रों के स्वास्थ्य और संसाधनों पर निर्भर हैं।
पारिस्थितिक तंत्रों के अंदर के जीव
भूरा तीतर पक्षी , स्वस्थ खेत के लिए एक मिसाल © माटेज वर्णिक
सोचिये पारिस्थितिकी तंत्र में जीवों की छोटी आबादी (पेड़-पौधे, जानवर, फंगस, या अन्य सूक्ष्म जीव) के बारे में, जहाँ प्रचुर मात्रा में भोजन और निवास ही नहीं बल्कि कम या ना के बराबर बीमारियां या फिर मृत्यु के अन्य कारण हैं। प्रयोग बताते हैं की ऐसी आबादियां बड़ेगीं। लेकिन जीवों के गुडंने का समय उनके आकार पर निर्भर करता है। एक बैक्टीरिया की आबादी मिनटों में या फिर छोटे पेड़-पौधों या जानवरों की आबादी एक साल के अंदर दोगुनी हो सकती है। जबकि एक हाथी की आबादी एक दशक से ज्यादा भी ले सकती है दोगुना होने मैं। अतन्त ऐसी आबादियां भुखमरी के कारण अपनी संसाधन सीमा तक पहुँचती हैं और कम हो जाती हैं। ज्यादातर लेकिन परिपक्व पौधों और जानवरों की आबादी इस तरह नहीं बढ़ती है। दुर्घटनाओं, परमक्षण और बीमारियों से बहुत युवा जीव भूखे रह जाते हैं और उनकी संख्या कम हो जाती है। तब भी कुछ प्राणी वृद्धावस्था ’तक पहुँचते हैं। इस प्रकार से मृत्यु हमारे सहित पारिस्थितिक तंत्र में अन्य जीवों के लिए जीविका प्रदान करती हैं।
पारिस्थितिक तंत्रों पर हमारा प्रभाव।
जानवरों को पालने या फसलों को उगाने से पहले, मनुष्य एक शिकारी के रूप में रहते थे। खेती का फैलना अंतिम हिमयुग के बाद शुरू हुआ। खेती की वजह से खाद्य आपूर्ति मजबूत बन सकीं परिणामस्वरूप मानव बस्तियों को विकसित और फलने-फूलने की अनुमति मिली और शहरों ने रूप लिया। इंसानों की संख्या आज प्रभावशाली रूप से बड़ चुकी है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र और जलवायु को बहुत नुकसान हुआ है। यदि पारिस्थितिक तंत्रों को एक सीमा से ज्यादा अस्त-व्यस्त किया जाये तो वो उचित रूप से काम नहीं कर पाते हैं, जिस कारण मानव आजीविका के साथ-साथ प्रकृति के अन्य पहलुओं पर समस्यात्मक प्रभाव पड़ता है। ग्रामीण इलाके जहाँ प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन नहीं हो पाता है, वहां हमारी गतिविधियों के परिणामस्वरूप स्थानीय वन्य-जीवों का जरूरत से ज्यादा प्रयोग होने का डर रहता है। शहरों में हम अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कहीं और के पारिस्थितिक तंत्रों के अन्यन्त उपयोग पर निर्भर है। आधुनिक दुनिया में बहुत कम लोग समझते हैं की उनके संसाधनों को बनाने के लिए किस प्रकार की प्रक्रियाओं की आवशक्यता पड़ती है और शहरों में बनाये गए कानून अक्सर ग्रामीण इलाकों में समुदायों के साथ अलोकप्रिय होते हैं। मानव आबादी आज अभूतपूर्व स्तर पर पहुच चुकी है और पारिस्थितिक तंत्रों को हानिकारक प्रभावों से बचने के लिए यह बहुत जरूरी हो गया है की जो भी हल अपनाये जाए, वह ठोस और सूचित हों और विज्ञान और व्यावहारिक ज्ञान के द्वारा विकसित किये जाएँ।